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जीवों के मारने से भी बहुत पाप होता है । इस विषय को दृढ़ करानेवाला वाराहपुराण का श्लोक देखिये" जरायुजाण्डजोद्भिज्जस्वेदनानि कदाचन । ये न हिंसन्ति भूतानि शुद्धात्मानो दयापराः " ॥८॥
१३२ अ. ५३२ पृ. भावार्थ-मनुष्य, गौ, भैंस और बकरी वगैरह एवं अण्डज अर्थात् सब प्रकार के पक्षी; उद्भिज याने वनस्पति, और स्वेदज याने खटमल, मच्छर, डांस, जुआँ, लीख वगैरह समस्त जन्तुओं की जो पुरुष हिंसा नहीं करते हैं वेही शुद्धात्मा और दयापरायण सर्वोत्तम हैं।
विवेचन-पूर्वोक्त श्लोक से स्पष्ट हुआ कि समस्त जीवों की रक्षा करनी चाहिये, अर्थात् किसी जीव को किसी प्रकार से भी मारना उचित नहीं है ।
खटमल, मच्छर, डांस, जुआँ वगैरह पहिले तो मनुष्य के पसीने और गन्दगी से पैदा होते हैं, किन्तु पीछे वे अपने २ पूर्वजों के खून से उत्पन्न होते हैं । परन्तु जहां कहीं वैसे जीव मरते हैं वहां पर पहिले से दुने बल्कि चौगुने उत्पन्न होते हैं। अत एव उनको मारना लाभदायक न होकर हानिकारकही है; यद्यपि वे जीव अपना २ काल पूरा करके स्वयं मरेंगे तथापि उनको मारना नहीं चाहिये, क्योंकि अभयदान जैसा उत्तम है वैसा कोई भी उत्तम धर्म नहीं है; यह बात पूर्वोक्त श्लोकसे स्पष्ट हो ही चुकी है। इसलिये जब कोई जीव अपने शरीर पर बैठे तो उसे कपड़े से सहज में हटादेना चाहिए; और जमीन को भी जहाँ तक बनसके देख देख