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(४८) उनको देखा होगा कि इनमें अभयदान की ही प्रशंसा की है। जैनशास्त्र में तो अभयदानको मोक्षका कारण माना है। उसी रीति से पुराणों में भी लिखा है, तथापि कितने ही लोग शास्त्रमोहित होकर अभयदानकी महिमा को नहीं समझते। यहाँ पर प्रथम श्लोक सब दानों में अभयदानको ही श्रेष्ठ बतलाता है और अभयदान देने में द्रव्यका भी कुछ खर्च नहीं पड़ता है, केवल मनमें दयाभाव रखकर छोटे बड़े सभी जीवों की यथाशक्ति रक्षा तथा करता का सर्वथा त्याग करना चाहिये; और अपने सुख के लिये अन्य जीवोंका प्राण लेना किसीको उचित नहीं है, इसीसे लिखा हुआ है कि
"न गोप्रदानं न महीप्रदानं नाऽनप्रदानं हि तथा प्रधानम् । यथा वदन्तीह बुधाः प्रधानं सर्वप्रदानेष्वभयप्रदानम्"।२९८॥
पृ. ७७ पञ्चतन्त्र । __ अर्थात्-विद्वान् लोग संपूर्ण दानों में जैसा अभयदान को उत्तम मानते हैं वैसा गोदान, पृथ्वीदान और अन्नदान आदि किसी को भी प्रधान नहीं मानते हैं।
कितने ही अज्ञानी जीव विना विचारे ही मच्छर, डाँस । खटमल, जूंआ, वगैरह छोटे २ जीवों को स्वभाव से ही मार डालते हैं, और बहुत से तो घोडे के बाल की मूरछल से, या हाथ से, या घर में धूआँ करके, या गरम जल से खटमल आदि जीवों को मारते हैं, परन्तु यदि कोई उनको समझावे तो वे ऊटपटांग जवाब देकर अपना बचाव करने का यत्न करते हैं; लेकिन वस्तुतः वैसे