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(४७) ब्राह्मणोंको हजारों कपिला गौएँ दी जावें और यदि केवल एक जीवको भी अभयदान दिया जाय तो बराबर ही फल नहीं है, बल्कि अभयदानका फल अधिक है। २
इष्ट वस्तु के दानसे, तपस्या करनेसे, तीर्थसेवा से या शास्त्रके पढ़नेसे जो पुण्य होता है वह पुण्य अभयदानके सोलहवें भागके सदृश भी नहीं है । ३
भयभीत प्राणीको जो अभयदान दिया जाता है उससे बढ़कर पृथ्वी पर तप अधिक नहीं है अर्थात् सर्वोत्तम अभयदान ही है । ४ ।।
एक जीवको अभयदान रूप दक्षिणा देनी श्रेष्ठ है, किन्तु भूषित भी हजारों गौओं का दान देना वैसा श्रेष्ठ नहीं है। ५
. हेम (सुवर्ण), धेनु (गौ) तथा पृथ्वीके दाता संसार में अनेक हैं किन्तु प्राणियों को अभय देने वाले जगत में दुर्लभ हैं । ६
हे अजुर्न ! जैसे मुझे मृत्यु प्रिय नहीं है वैसे ही प्राणिमात्रको मृत्यु अच्छी नहीं लगती अतएव मृत्युके भयसे प्राणियोंकी रक्षा करनी चाहिए । ७
एक तरफ समग्रदक्षिणावाला यज्ञ और दूसरी तरफ भयभीत प्राणीकी प्राणरक्षा करना बराबर है। ८ ।
एक तरफ सुवर्णका सुमेरुदान, तथा बहु रत्नवाली पृथ्वीका दान रक्खा जाय और एक तरफ केवल प्राणीकी रक्षा रक्खी जावे तो समान ही है । ९
विवेचन-पूर्वोक्त श्लोक पुराणों के हैं, पाठकोंने