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गान्धारी, अम्बा, दुर्गा वगैरह की सेवा उत्तम २ पदार्थों को चढ़ाकर करनी चाहिए। कितनेही लोग दुर्गापाठ की साक्षी देकर पशुपूजा के लिए आग्रह करते हैं, उनलोगों को समझना चाहिये कि " पशुपुष्पैश्च धूपैश्च यह जो पाठ है उसमें विचार कीजिए कि पुष्प को जैसे साबूत ( समूचा ) चढ़ा देते हैं वैसे ही पशु को भी चढ़ादेना चाहिए याने चढ़ाते समय यह प्रार्थना करनी चाहिए कि है जगदम्ब ! आपके दर्शन से जैसे हम लोग अभय और आनन्द से रहते हैं वैसे ही तुम्हारे दर्शन से पवित्र हुआ यह बकरा जगत् में निर्भय होकर विचरे । अर्थात् किसी मांसाहारी की छुरी उसके गले पर न फिरे । ऐसा संकल्प करके बकरे को छोड़ना चाहिए, जिससे कि पुण्य हो और माता भी प्रसन्न हो, तथा जगदम्बा का सच्चा अर्थ भी घटित हो जाय । अन्यथा जगदम्बा नाम रहने पर भी जगद्भक्षिणी हो जायगी ।
महानुभव ! मनुजी ने ४८ और ४९ वें श्लोक में प्राणियोंके वध से स्वर्ग का निषेध स्पष्ट दिखलाया है । यदि कदाचित् उन श्लोकों को कल्पित मानोगे तो मांसाहार से स्वर्ग होता है, यह कल्पित क्यों न माना जाय ? जब कि दोनों कल्पित नहीं हैं तो यही दोनों श्लोक बलवान् हैं और बलवान् से दुर्बल बाधित होता है । और देखिये उसी अध्याय के ५३-५४-१५ श्लोकों को :
" वर्षे वर्षेऽश्वमेधेन यो यजेत शतं समाः ।
मांसानि च न खादेद् यस्तयोः पुण्यफलं समम् " ॥५३॥