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( ९१) और अप्रिय संपूर्ण रीति से मालूम होता है। इसलि : एक स्थान में यज्ञ के वास्ते एक बकरा बाँधा हुआ बें बें कर रहा था । उसपर कई कवियों ने भिन्न २ प्रकारकी उत्प्रेक्षा की-एक ने ऐती उत्प्रेक्षा की कि-बकरा कहता है कि मुझे जल्दी स्वर्ग पहुंचा दो, तो दूसरे ने यह उत्प्रेक्षा की कि यह बकरा कहता है कि इस राजा का कल्याण हो, जिसने केवल तृण आहार को छुड़ाकर अमताहार का भागी बनाया, तब तीसरे कवि ने कहा कि यह बकरा वैदिक धर्म को धन्यवाद देरहा है कि यदि वैदिक धर्म न होता तो हमारे ऐसे अज्ञानी पशु को स्वर्ग कौन ले जाता ? । इस प्रकार की जब कल्पनाएँ चल रहीं थीं; उसी समय एक दयालु पुरुष कहने लगा कि-यह पशुयज्ञ करनेवालों से विनति करता है कि"नाहं स्वर्गफलोपभोगतृषितो नाभ्यर्थिस्त्वं मया
संतुष्टस्तृणभक्षणेन सततं साधो ! न युक्तं तव । स्वर्ग यान्ति यदि त्वया विनिहता यज्ञे ध्रुवं प्राणिनो
यज्ञ किं न करोषि मातृपितृभिः पुत्रैस्तथा बान्धवैः ?"॥१॥
__ भावार्थ-हे यज्ञ करनेवाले महाराज ! मैं स्वर्ग के फलोपभोग का प्यासा नहीं हूं और न मैंने तुमसे यह प्रार्थना ही की है कि तुम मुझे स्वर्ग पहुंचादो, किन्तु मैं तो केवल तृण के ही भक्षण से सदा प्रसन्न रहता हूं, अतएव हे सजन ! तुम्हे यह कार्य (यज्ञ ) करना उचित नहीं है, और यदि तुम्हारा मारा हुआ प्राणी स्वर्ग में निश्चय से जाता ही हो, तो इस यज्ञ में अपने माता