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(९२) "पिता आदि बन्धुओं को ही मारकर स्वर्ग क्यों नहीं पहुंचा देते ?।
जो अहिंसा धर्मकी पुष्टि पुराण, स्मृति आदि बहुत से ग्रन्थों में की हुई है, उसको मैं यहाँ न दिखलाकर, केवल अहिंसा की महिमा और उसके सङ्गकरनेवाले की अपूर्व शक्ति तथा हिंसक पुरुष की दुर्दशा ही दिखलाता हूँ। - अहिंसा की महिमा कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यजी ने इस तरह की है
यथा“ मातेव सर्वभूतानामहिंसा हितकारिणी ।
अहिंसैव हि संसारमरावमृतसारणिः" ॥ ५० ॥ " अहिंसा दुःखदावाग्निप्रावृषेण्यघनाऽऽवली । भवभ्रमिरुजार्तानामहिंसा परमोषधी" ॥ ५९॥
योगशास्त्र द्वि. प्र. पृ. २८५ भावार्थ-अहिंसा सब प्राणियों की हित करनेवाली माता के समान है, और अहिंसा ही संसाररूप मरु (निर्लज) देश में अमृत की नाली के तुल्य है; तथा दुःखरूप दावानल को शान्त करने के लिये वर्षाकाल की मेघपक्ति के समान है; एवं भवभ्रमणरूप महारोग से दुःखी जीवों के लिये परमौषधि की तरह है ।
अहिंसा समस्त व्रतों में भी मुकुट के समान मानी