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(९३) "हेमाद्रिः पर्वतानां हरिरमृतभुजां चक्रवर्ती नराणां ।
शीतांशुज्योतिषां स्वस्तरुरवनिरुहां चण्डरोचिहाणाम् । सिन्धुस्तोयाशयानां जिनपतिरसुरामर्त्यमाधिपानां यद्वत् तद्वद् व्रतानामधिपतिपदवीं यात्यहिंसा किमन्यत् ॥१॥
भावार्थ-जैसे पर्वतों में मेरु, देवताओं में इन्द्र, मनुष्यों में चक्रवर्ती, ज्योतिर्मण्डल में चन्द्रमा, वृक्षावली में कल्पवृक्ष, ग्रहों में सूर्य, जलाशयों में सिन्धु और वासुदेव-बलदेव-चक्रवर्ति, तथा ६२ इन्द्रों में जिनराज उत्तम हैं, वैसे ही समस्त व्रतों में श्रेष्ठ पदवी को अहिंसा ही पाती है, अर्थात् अहिंसा सबसे श्रेष्ठ है । अतएव जिस धर्म में दया न हो वह धर्म किसी कामका नहीं है। क्योंकि शस्त्ररहित सुभट और विचारहीन मंत्री, किले के विना नगर, नायक रहित सेना, दन्तहीन हस्ती, कलाशून्य पुरुष, तप से विहीन मुनि, प्रतिज्ञाभङ्ग पुरुष, ब्रह्मचर्य रहित व्रती, स्वामी के विना स्त्री, दान विना धनाढय का धन, स्वामीहीन देश, विद्या के विना विप्र, गन्धहीन पुष्प, दन्त विना मुख, वृक्ष और कुसुम के विना सरोवर, एवं पातिव्रत्यधर्महीन स्त्री जैसे अच्छी नहीं लगती है वैसेही दया के विना धर्म अच्छा नहीं लगता है। किन्तु दयावान् पुरुष समदृष्टि होने से आदेयवचन, पूजनीयवाक, महितकीर्ति, परमयोगी, शान्तिसेवधि, परोपकारी, ब्रह्मचारी इत्यादि विरुदों से अलङ्कृत होता है । अतएव पशु पक्षी भी उसकी गोद में निर्भय होकर क्रीड़ा करते हैं, क्योंकि पशु पक्षी स्वयं क्रूर स्वभाव को छोड़कर जन्म वैर को भी जलाञ्जलि देते हैं और स्वभाव से दया