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अतएव
पदार्थों की उत्पत्ति, और द्वितीय क्षण में स्थिति, और तृतीयक्षण में नाश होता है । ऐसे माननेवालों के मतानुसार सांसारिक व्यवहार सुव्यवस्थित नहीं बनेगा | क्योंकि पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा से आत्मा, अनेक नर तिर्यञ्चादि पर्यायादि का अनुभव करता है, अनित्य है । द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से आत्मा अच्छेदी, अभेदी, अविनाशी, शुद्ध, बुद्ध, अविकारी, असंख्य प्रदेशात्मक, सच्चिदानन्दमय पदार्थ है और इसी आत्मा को प्राण से मुक्त करने को ही हिसा कहते हैं । यह हिंसा आत्मा में युक्तियुक्त नित्यानित्यभाव मानने ही में सिद्ध होती है । अत एव हिंसा के त्याग करने को ही अहिंसाधर्म कहते हैं। विपर्यासबुद्धिवाले पुरुष कुतर्काधीन बनकर कहते हैं कि घातकजन्तुओं के मारने में कोई दोष नहीं है, क्योंकि एक जीव के मर जाने से अनेक जीव बचाये जायेंगे । किन्तु जो लोग ऐसा मानते हैं उनकी भूल है । क्योंकि संसार में प्रायः समस्त प्राणी किसी न किसी अंश में किसी जीव के हिंसक दिखाई देते ही हैं तो पूर्वोक्त न्यायानुसार सभी जीवों के मारने का अवसर प्राप्त होगा, तब तो लाभ के बदले उलटी हानि ही होगी । अतएव हिंसक जन्तुओं के मारने को धर्म मानना सर्वथा अनुचित है । चाहे हिंसक हो चाहे अहिंसक हो, सभी प्रकार के जीवों को भय से मुक्त करने में परम धर्म है; क्योंकि परिणाम में बन्ध और क्रिया में कर्म दिखलाया है ।
चार्वाक के संबन्धी संसारमोचक कहते हैं कि- दुःखित