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अथवा ज्व
( ११७ ) जीवों को मारदेने से उनके दुःख का नाश और दुःख से जीवों को मुक्त करना ही परम ऐसी स्थूल युक्ति से धर्ममाननेवाले यदि दीर्घदृष्टि से देखते तो ऐसी भारी भूल में पड़ते । यद्यपि हाथ पांव के टूट जाने से, रादि वेदना से विह्वल जीवों को देख करके मारने की क्रिया उनके सुख के लिये गोली से वे भले ही करें किन्तु वास्तविक रीति से देखा जाय तो स्वल्प वेदनावाले को अत्यन्त वेदनावान् बनाते हैं। क्योंकि जो जीव इस भव में स्वल्प वेदना को अनुभव करता था वही परलोक में अब गर्भादि की अनन्त वेदना सहन करेगा । तथा पूर्व वेदना से जो अधिक गोली लगने से वेदना होती है वह तो प्रत्यक्ष सिद्ध ही है, इसलिये वे जीव आर्तरौद्रध्यान वाले होने से नरकादि गति के भागी होते हैं । अतएव दुःख से मुक्त करने के आशय से गोली मारना उनका भ्रान्तिरूप हा है । यदि यह आशय सच्चा भी हो तो जिस तरह पशुओं की पीडा छुडाना चाहते हैं उसी तरह अपने माता पिता को भी दुःखित देखकर उन्हें मारकर उस दुःखसे उन्हें मुक्त क्यों नहीं करते हैं ? | क्योंकि मनुष्य को सर्वत्र समान दृष्टि हो रखना उचित है । दुःखी प्राणियों के मारने से धर्म माननेवालों का सुखी जीवों का भी मंहार करना चाहिये, जिससे कि उन जीवों से संसारवर्धक पाप कर्म न होने पावें । इत्यादि अनेक अनर्थरूप आपत्तियां आ पड़ती हैं; इसीलिये संसारमोचकों को उचित है कि कुयुक्ति रूप कदाग्रह से मुक्तहोकर वस्तुत: संसारमोचक बनें ।
होजाता है धर्म है । थोड़ी भी कभी न