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"रसातलं यातु यदत्र पौरुषं कनीतिरेषाऽशरणो ह्यदोषवान् । निहन्यते यद्बलिनाऽतिदुर्बलोहहा! महाकष्टमराजकं जगत्"? "पदे पदे सन्ति भटा रणोत्कटा न तेषु हिंसारस एष पूर्यते । धिगीदृशं ते नृपते! कुविक्रमं कृपाऽऽश्रये यः कृपणे मृगे मयि"२६
भावार्थ-जो दुर्बल जीव बली से मारा जाता है इस विषय में जो पौरुष है वह रसातल को चला जाय;
और अदोषवान् याने निर्दोष जीव अशरण हो अर्थात् उसका कोई रक्षक न हो? यह कहाँ की नीति है, बडे कष्ट की बात है कि विना न्यायाधीश संसार अराजक हो गया है।
दूसरे श्लोक में कवियोंने हरिण का . पक्ष लेकर अहिंसाधर्म का उपदेश राजाओं के करने के लिये युक्तिपूर्वक उत्प्रेक्षा की है कि-हे क्षत्रियो ! यदि तुमारे अन्तःकरण में स्थित हिंसा का रस तुझे पूर्ण करना तो स्थान स्थान में लाखों जो संग्राम में भयङ्कर सुभट तैयार है, क्या वहां पर वह रस तुह्मारा पूर्ण नहीं हो सकता है ? । अर्थात् उनलोगों से लड़कर यदि शस्त्रकला को सफल करो तो ठीक है; किन्तु कृपा करने के लायक और कृपण मेरे ऐसे बेचारे मृग में जो हिंसारस को पूर्ण करना चाहते हो इसलिये इस तुम्हारे दुष्ट पराक्रम को धिक्कार है।
विवेचन-क्षत्रियों का धर्म शस्त्रवान् शत्रु के संमुख होने के लिये हो है, किन्तु वह भी योग्य और शास्त्रयुक्त और नीतिपूर्वक, निष्कपट होकर, इतनाही नहीं किन्तु उत्तमवंशी वीर राजा के साथही करना चाहिये ।