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(१०५) ऐसा नियम है कि जो मनुष्य हार जाता है वह अपने मुख में घास लेकर और नम्र होकर यदि शरण में आजावे तो वह माफी पाता ही है, किन्तु वह मारा नहीं जाता। इस लिये मग कहता है कि हे राजन् ! न तो मेरे पास शस्त्र है और न मैं उत्तम कुल में राजाही हुआ हूँ किन्तु हमेशा मुख में घास रखनेवाला मैं निरपराधी जीव हूँ, मुझे यदि मारोगे तो तुह्मारी कीर्ति कैसी होगी यह विचारणीय है। कहा हुआ है कि
" वैरिणोऽपि विमुच्यन्ते प्राणान्ते तृणभक्षणात् ।
तृणाहाराः सदैवैते हन्यन्ते पशवः कथम् ? ॥१॥ “ वने निरपराधानां वायुतोयतृणाशिनाम् । . निघ्नन् मृगाणां मांसार्थी विशिष्येत कथं शुन:?"॥२३॥
" निर्मातुं क्रूरकर्माणः क्षणिकामात्मनो धृतिम् । ___समापयन्ति सकल जन्मान्यस्य शरीरिणः " ॥२६॥ " दीर्यमाणः कुशेनापि य स्वाङ्गे हन्त ! यते । निर्मन्तून् स कथं जन्तूनन्तयेन्निशितायुधैः ? "॥२४॥
इत्यादि अनेक श्लोकों से राजाओं के शिकार करने का निषेध प्रत्यक्ष सिद्धही है। इतनाही नहीं किन्तु जो वन में झरने का पानी और घास खाकर रहनेवाले निरपराधी जीवों को मांस के लोभी लोग मारते हैं क्या कुत्तों से विशेष गिने जासकते हैं ? । क्योंकि