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(१०६) " सर्वे वेदाश्च यज्ञाश्च तपो दानानि चानघ । जीवाभयप्रदानस्य न कुर्वीरन् कलामपि " ॥ ४१॥
भागवत ३ स्कन्ध, ७ वां अध्याय । भावार्थ-जीवों के अभय दान देने की एक कला को भी संपूर्ण वेद, यज्ञ, तप, दान आदि नहीं कर सकते हैं। और भी लिखा है कि" ये त्वनेवंविदोऽसन्तः स्तब्धाः सदभिमानिनः । पशून् द्रुह्यन्ति विस्रब्धाः प्रेत्य खादन्ति ते च तान् "॥१४॥
भागवत ११ स्कन्ध ५ अध्याय । भावार्थ-निश्चलभाव को प्राप्त होकर अहिंसाधर्म को न जानकर अपने को अच्छा मानने वाला जो असाधु पुरुष पशुओं से द्रोह करता है, वह उन पशुओं से दूसरे जन्म में अवश्य खाया जाता है। और श्रीमद्भगवद्गीता में भी कहा है कि" आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन !। मुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः" ॥३२॥
अध्याय ६ पत्र ११९ (बहुत छोटा गुटका।) भावार्थ-जो महात्मा सब में अपने समानही सुख और दुःख दोनों मानता है वही परम योगी माना जाता है।
अब विचारने की बात है कि" स्वच्छन्दं वनजातेन शाकेनाप प्रपूर्यते ।
अस्य दग्धोदरस्यार्थे का कुर्यात् पातकं महत् ?" ॥१॥