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(१०७) भावार्थ-यदि वन में उत्पन्न हुए. शाक से भी स्व.. च्छन्दता पूर्वक उदर पूर्ण होजाता है तो इस नष्ट उदर के वास्ते कौन पुरुष घोर पाप करे ?।
देखिये, क्रूर काम करने वाले अपनी क्षणभर की तृप्ति के लिये अन्य जीवका जन्म नष्ट करते हैं, क्या यह कोई बुद्धिमान् पुरुष योग्य मानेगा?! क्योंकि अपने अङ्ग में एक सूई लगने से भी जब दुःख होता है, तो तीक्ष्ण शस्त्रोंसे निरपराधी जीवोंका नाश करना क्या उचित है ?। प्रसंगानुसार 'बकरीविलाप' द्वारा जो सुन्दर उपदेश भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्रजी ने किया है सो भी नीचे दिखलाया जाता हैमानुष जनसों कठिन् कोउ, जन्तु नाहिं जगबीच । बिकल छाडि मोहि पुत्र लै, हनत हाय सब नीच ।। बृथा जवन को दूसही, करि वैदिक अभिमान । जो हत्यारो सोइ जवन, मेरे एक समान ॥ धिक् २ ऐसो धर्म जो, हिंसा करत बिधान । धिक्.२ ऐसो स्वर्ग जो बध करि मिलत महान ॥ शास्त्रन को सिद्धान्त यह, पुण्य सु परउपकार । पर पीड़न सों पाप कछु, बढ़ि के नहिं संसार ।। जज्ञन में जप जज्ञ बढ़ि, अरु सुभ सात्त्विक धर्म । सब धर्मन सो श्रेष्ठ है, परम अहिंसा धर्म ॥ पूजा लै कहँ तुष्ट नहिं, धूपदीप फल अन्न । जो देवी बकरा वधे, केवल होत प्रसन्न ॥