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________________ .. (१०८) हे विश्वम्भर ! जगतपति ! जगस्वामी जगदीस !। हम जगके बाहर कहा, जो काटत मम सीस ॥ जगमाता ! जगदम्बिके ! जगतजननि ! जगरानि !। तुम सन्मुख तुम सुतनको सिर काटत क्या जानि ?॥. क्यों न खींच कै खड्ग तुम, सिंहासन तें धाय । सिर काटत सुत बधिक को, क्रोधित बलि ढिग आय ॥ त्राहि २ तुमरी सरन, मैं दुखनी अति अम्ब !। अब लम्बोदरजननि बिनु मो को नहिं अवलम्ब ॥ अब मांसाहार के लिये *कबीर जी आदि महात्माओं ने क्या कहा है ?, उसे देखिये " माँस अहारी मानई, प्रत्यक्ष राक्षस जान । ___ ताकी संगति मति कर, होइ भक्ति में हानि "॥१॥ " माँस खाय ते डेढ़ सब, मद्य पीनै सो नीच । कुल की दुर्मति पर हरै, राम कहै सौ ऊँच " ॥२॥ __ * कबीर के प्रमाण देने से कवीर को हम सर्वथा आप्त पुरुष नहीं समझते। एक सत्य 'कबीर की साखी' नाम की पुस्तक छपी है, वह भी ठीक नहीं है। कबीर की भाषा बहुत जगह ग्रामीण है उन्हें शास्त्रीयभाषा का ज्ञान नहीं मालूम पड़ता है। और उनका लेख रागद्वेष से भी पूर्ण हमें दिखाई देता है, यह बात साखी के अन्तिम दर्शननिन्दापरक बचनों से ही मालूम होती है। जिसमें उन्होंने जैनदर्शन की व्यर्थ असत्य आक्षेपों द्वारा निन्दा की है। तथापि उनमें दयादि सामान्य गुणों का पुष्टि करने वाला गुण, अवश्य प्रशस्य था; इसलिये उनकी कविता बाल जीवों को माननीय होने से यहाँ पर दी गई है।
SR No.002390
Book TitleAhimsa Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1923
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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