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________________ ( १०३ ) 1 रखने के लिए उन्होंने यह लिखा है कि यज्ञ, मधुपर्क, श्राद्ध और देवपूजा आदि में जो हिंसा की जाती है उसका फल यद्यपि स्वर्ग है, तथापि साथही साथ हिंसाजन्य पाप से नरकादि दुःख भी भोगना पड़ता है । इससे दुनियां के लोग उन्हें सत्यवक्ता मानते हैं कि 'देखिये यह ऐसे सत्यवक्ता हैं कि अपनी हार्दिक कुछ भी बात छिपी नहीं रखते । परंतु अपने सत्यवक्ता कहाने के लिये ही हिंसा में दोष उन्होंने माना है अन्यथा वे कदापि दोष न मानते । वर्त्तमान समय में जीवदयापालक मनुष्यों को देखकर याज्ञिक लोग, हिंसा की पुष्टि विशेष करते हैं और क्षत्रियों के लिये तो वे लोग हिंसा करना धर्मही बतलाते हैं और कहते हैं कि क्षत्रिय लोगोंको मृगया ( शिकार ) करने में कुछ भी दोष नहीं है, क्योंकि मांसाहार न करने पर शत्रुओं से देश की रक्षा होही नहीं सकती । ऐसे अनेक कारण दिखाते हैं, किन्तु वे उनकी युक्तियां बुद्धिमान् पुरुषों को ठीक नहीं मालूम देती हैं। देखिये शिकार के लिये दोष न मानना तो राजाओं के प्रिय होने के लियेही लिखा है. क्योंकि यदि शिकार करने में दोष न होता तो धर्मिष्ठ राजा लोग उसको क्यों छोडते ? । और युक्ति से भी देखा जाय तो राजा का धर्म यही है कि निरपराधी जीव की रक्षाही करे, न कि उसको मार डाले । अतएव निरपराधी जीवों को मारने वाले क्षत्रियों के पुरुषार्थ को महात्मा लोग एक प्रकार से तिरस्कारही करते हैं कि
SR No.002390
Book TitleAhimsa Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1923
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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