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(७८) समय प्रायः पूर्वोक्त चिह्न संसारी जीवों में दीखते हैं। अतएव हिंसा त्याज्य है, और अपनी आत्मा की तरह सबको देखना उचित है। यदि समस्त पृथ्वीपर घूमकर अनुभव प्राप्त किया जाय तो मब जीवों को प्राण से अधिक कोई वस्तु प्यारी नहीं मालूम होगी, अतएव सब प्राणियों में दया करनेवाला जीव ही आत्मतत्त्वज्ञ माना जाता है । इसलिये दया का विशेषभाव भीष्मपितामह ने युधिष्ठिर को दिखलाया है कि हे राजन् ! जीवनपर्यन्त सकलमांसत्यागी जो पुरुष होता है वह स्वर्ग में उत्तमोत्तम स्थान को पाता है इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है।
यदि महाभारत को हिन्दू लोग पञ्चम वेद मानते हैं तो पूर्वोक्त समस्त श्लोक महाभारत के अनुशासन पर्व में दानधर्म की महिमा के समय अहिंसा धर्म के फल में भीष्मपितामह ने युधिष्ठिर को दिखलाये हैं, उन पर क्यों नहीं ध्यान देते ? । अब मैं उनका विशेष विस्तार न करके अन्तिम श्लोक मात्र का लक्ष्य रखकर' पाटक महाशयों को सूचित करता हूँ:
___ हे कुरुपुङ्गव । अहिंसा का स्वर्ग मोक्षादिरूप बड़ा भारी फल प्रतिपादन किया हुआ है, जिस अहिंसा के गुणों को सौ वर्ष पर्यन्त भी अगर कोई वर्णन करे तो भी वह पूर्ण नहीं हो सकता । अन्तिम श्लोक के पूर्व श्लोकमें भी लिखा है कि संपूर्ण यज्ञ, दान, सर्व तीर्थीका स्नान, और सब दानों का जो फल है वह भी अहिंसा की बराबरी नहीं कर सकता, क्योंकि हिंसाकरनेवाला गर्भवास और नरक के दुःख को अवश्य भोगता है ।