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________________ (७९) यह बात उसी अध्याय के निम्न लिखित श्लोक के देखने से प्रतीत होती है- . यथा" गर्भवासेषु पच्यन्ते क्षाराम्लकटुकै रसैः । मूत्रस्वेदपुरीषाणां परुषैभृशदारुणैः " ॥ २९ ॥ जाताश्चाप्यवशास्तत्र च्छिद्यमानाः पुनः पुनः। पाच्यमानाश्च दृश्यन्ते विवशा मांसद्धिनः" ॥३०॥ " कुम्भीपाके च पच्यन्ते तां तां योनिमुपागताः । आक्रम्य मार्यमाणाश्च भ्राम्यन्ते वै पुनः पुनः" ॥३२॥ भावार्थ-क्षार, आम्ल, और कटु रसों से मांसभक्षी पुरुष गर्भवास के समय परिताप को प्राप्त होते है, तथा मल मूत्रादि द्वारा भयङ्कर दुःख को भी प्राप्त होते है, तथा नरक गति में उत्पत्ति के समय भी अवश होकर वारंवार नरक को जाते है और तत्तदयोनि में 'जाने पर भी कुम्भीपाक में पकाये जाते हैं, तथा उन नारकी जीवों को अनेक प्रकार के शस्त्रों से छेदते हुए असिपत्रादि वन में यमदत लोग लेजाते है, जिस पत्रके गिरते ही उन दुष्टों का शिरच्छेद होता है । इस प्रकार नरकपाल लोग वहांसे फिर उन्हें अन्यत्र ले जाते हैं। देखिये-यह सब वेदना मांसाशी जीवही प्रायः पाते है, इसलिये ही परप्राण से स्वप्राण की रक्षा करनेवाले मूर्ख शिरोमणि गिने जाते है। अतएव समस्त नीतिशास्त्र और धर्मशास्त्रों में परोपकार के लिये क्षणभङ्गुर शरीर के ऊपर मोह करनेका निषेध है । जैसे
SR No.002390
Book TitleAhimsa Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1923
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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