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द्रव्य दुःखो से पीडित होकर शरीर कांपता है, और हाथ पांव भी हिलते हैं । ध्यानी पुरुष को भी वेदनीय कर्म होगा तो जरूर शरीर का धर्म दृष्टिगोचर होगा, तथापि इससे ध्यानी कभी अध्यानी नहीं माना जा सकता । दृष्टान्त यह है कि महावीर देव ने, अनन्त बलवान् और मेरु की तरह निष्कम्प, तथा पृथ्वी की तरह दृढ होने पर भी कर्णकीलकर्षण के समय तो आक्रन्द किया ही; इससे यह न समझना चाहिये कि भगवान् ध्यान से भ्रष्ट होकर पौगलिक भाव में लीन हुए किन्तु वह तो शरीर का धर्म ही है । देखिये, वर्तमान समय में अविद्या में कुशल डाक्टर लोक औषधि के प्रयोग से रोगी को बेहोश करके उसके शरीर के अवयवों को काटते हैं और काटने के समय रोगी के हाथ पांव को दो चार आदमी पकडे रहते हैं और उस समय भी रोगी हाथ पैर हिलाताहि है और अस्फुट शब्द को बोलता है; किन्तु काटने के बाद जब औषध ( क्लोरोफार्म ) उतर जाता है उस समय यदि उससे पूछा जाय कि काटने के समय तुमको क्या हुआ था ? तो वह यही कहता है कि मुझे तो कुछ भी मालूम नहीं है। इससे सिद्ध होता है कि केवल शरीर का धर्म ही कम्पादि क्रियावाला है। यह विना आत्मा के उपयुक्त हुए ही स्वभाविक होता है तथापि शरीर के साथ आत्मा का सम्बन्ध जीवन पर्यन्त है यह बात स्वीकार करनी ही पड़ेगी। क्योंकि मृत शरीर में कोई चेष्टा नहीं होती है, जीवित शरीर में कम्प, स्वेद, मूर्छा और चलनादि क्रिया मालूम पड़ती है; और यह दुःखरूप कार्य के ज्ञापक चिह्न हैं, क्योंकि मरण के