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________________ ( ४४ ) इसका भावार्थ ऊपर दिया ही है । अब जैनशास्त्र के प्रमाणसे दशवैकालिकका यथार्थ वचन दिखलाया जाता है " सव्वे जीवा वि इच्छंति जीविउँ न मरिज्जउं । तम्हा पाणिवहं घोरं निम्गंथा वज्जयंति णं " ॥१॥ भावार्थ- समस्त जीव जीने ही की इच्छा करते है किन्तु मरने की कोई भी इच्छा नहीं करता, अतएव प्राणियों का वध घोर पापरूप होनेसे साधुलोग उसका निषेध (त्याग) करते हैं । इस बातको दृढ़ करते हुए तत्त्वेवत्ता कहते हैं कि " दीयते म्रियमाणस्य कोटिर्जीवित एव वा । धनकोटिं परित्यज्य जीवो जीवितुमिच्छति " ॥ १ ॥ अर्थात् - अगर मरते हुए जीवको कोई आदमी करोड़ अशर्फी दे और कोई मनुष्य केवल जीवन दे तो 'अशर्फियों की लालच को छोड़ वह जीवन की ही इच्छा करेगा, क्योंकि स्वभावसे जीवोंको प्राणोंसे प्यारी और कोई वस्तु नहीं है। इस बात को विशेष दृढ़ करने के लिये यह दृष्टान्त है एक समय राजसभा में बुद्धिमान पुरुषोंने परस्पर विचार करके यह निश्चय किया कि प्राणसे बढ़कर कोई चीज नहीं है । इस बातको सुनकर राजाने परीक्षा ( करने के लिये चार पुरुषोंको बुलाया और हर एक के
SR No.002390
Book TitleAhimsa Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1923
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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