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(४३) शैव, पाशुपत, कालामुखी, जङ्गम, कापालिक, शाम्भव, भागवत, नग्नव्रत, जटिल आदि आधुनिक तथा प्राचीन समस्त मतवालोंने यम, नियम, व्रत, महाव्रतादि के नामसे मान दिया है और देते भी हैं। तथा इस विषयमें पुराण भी इस तरह साक्षी देते हैं
महाभारत शान्तिपर्वके प्रथम पाद में लिखा है कि" सर्वे वेदा न तत् कुर्युः सर्वे यज्ञाश्च भारत !।
सर्वे तीर्थाभिषेकाश्च यत् कुर्यात् प्राणिनां दया" ॥१॥
भावार्थ-हे अर्जुन ! जो प्राणियोंकी दया फल देती है वह फल चारों वेद भी नहीं देते और न समस्त यज्ञ देते हैं तथा सर्वतीर्थों के स्नान वन्दन भी वह फल नहीं दे सकते हैं।
और यह भी कहा है" अहिंसालक्षणो धर्मो ह्यधर्मः प्राणिनां वधः।।
तस्माद् धर्माणिभिर्लोकः कर्तव्या प्राणिनां दया" ॥१॥
अर्थात–दया ही धर्म है और प्राणियों का वध ही अधर्म है, इस कारणसे धार्मिक पुरुषों को सर्वदा दया ही करनी चाहिए। क्योंकि विष्ठाके कीड़ेसे लेकर इन्द्र तक सबको जीविताशा और मरणभय समान है। " अमेध्यमध्ये कीटस्य सुरेन्द्रस्य सुरालये।
समाना जीविताऽऽकाङ्क्षा तुल्यं मृत्युभयं द्वयोः"॥१॥