SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ४२ ) भावार्थ - जो पुरुष सब प्राणियों में अपनी आत्मा के समान बर्ताव करता है और दूसरेके द्रव्य में पत्थर के समान बुद्धि करता है तथा परस्त्रीको माताकी तरह देखता है वही पण्डित है, अथवा वही नेत्रवाला है । देखिये, पूर्वोक्त श्लोक से यह स्पष्ट होता है कि सब प्रकार जीवों को शान्ति देना, यही दया है । और पूर्वोक्त शास्त्र, शील, तप, दया जिसमें हो उसे धर्मरत्न जानना चाहिए। इससे भिन्न कोई धर्म नहीं है, किन्तु इससे भिन्न जो कुछ होगा वह भद्रिक जीवोंको भवभ्रमणकरानेवाला ही होगा । इसी कारणसे नीतिकार श्लोकरत्नोंको भूमण्डल में छोड़ करके परीक्षा करनेके लिये प्रेरणा करते हैं, तथापि वर्तमान कालके मनुष्य पक्षपातरहित होकर विचार नहीं करते, किन्तु विशुद्ध और निर्मल अहिंसा धर्मका अनादर करके हिंसा करने में कुयुक्तियों का उपयोग करते हैं । वस्तुतः अहिंसादि सामान्य धर्म समस्त दर्शनानुयायियों को संमत है । यथा " पञ्चैतानि पवित्राणि सर्वेषां धर्मचारिणाम् । अहिंसा सत्यमस्तेयं त्यागो मैथुनवर्जनम् " ॥ १ ॥ अर्थात् - अहिंसा, सत्य, चोरी का त्याग, ब्रह्मचर्य का पालन और सर्वथा परिग्रह याने मूर्च्छाका त्याग, ये यांच पवित्र महाव्रत समस्त दर्शनानुयायी महापुरुषों को बहुमानपूर्वक माननीय हैं, अर्थात् संन्यासी, स्नातक, नीलपट, वेदान्ती, मीमांसक, साङ्ख्य वेता, बौद्ध, शाक्त,
SR No.002390
Book TitleAhimsa Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1923
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy