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________________ (४१) यथा" कपायविषयाऽऽहारत्यागो यत्र विधीयते । उपवासः स विज्ञेयः शेषं लङ्घनकं विदुः " ॥१॥ अर्थात् -क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेषादि कषाय और पञ्चेन्द्रियके विषयोंका जिसमें त्याग है उसीको उपवास कहना चाहिए, इससे अतिरिक्त तपस्या को तत्ववेत्ता लोग लङ्घन कहते हैं। लेकिन बहुतोंको देखकर आश्चर्य होता है कि दशमी के रोज खान पान में चार आने से उनका कार्य सिद्ध होता है, किन्तु एकादशी के रोज आठ आने का माल उड़ जाता है तो भी उपवास ही कहा जाता है; यह क्या कोई रपवास (तप) है? जिस तपसे कर्मोंका नाश हो उसी का नाम तप है । मन, वचन और शरीरसे किसी जीवकी हानि नहीं करना, किन्तु समस्त जीवों को अपने समान ही मानने को दया कहते हैं, क्योंकि जैसे अपने शरीर में फोडा होने से वेदनाका अनुभव होता है और उसके हजारों उपचार करने का प्रयत्न किया जाता है, वैसे ही अन्य के लिये उपचार करना सर्वथा पण्डितों को उचित है; क्योंकि अन्यजीवों पर जो दया नहीं करता वह कदापि पण्डित नहीं कहलाता है। यथा-- " आत्मवत् सर्वभूतेषु परद्रव्येषु लोष्ठवत् । मातृवत् परदारेषु यः पश्यति स पण्डितः ( यः पश्यति स पश्यति )"॥ १॥
SR No.002390
Book TitleAhimsa Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1923
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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