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इन गाथाओं का भावार्थ पहिलेही लिखा जा चुका है, इसलिये अब विशेष व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं है ।
पाठकोंने अच्छी तरह से समझ लिया होगा कि वस्तुतः ब्रह्मचर्य अहिंसा पालन के लिये ही है, तथापि यदि लौकिक व्यवहार पर भी दृष्टि दी जाय तो और भी विशेष स्पष्ट होगा | देखिये किसीकी बहिन या स्त्री पर कुदृष्टि करने से जो दुःख होता है उसका विवेचन करना असंभव है और दुःख देना ही अहिंसा का स्वरूप है । अतएव ब्रह्मचर्य पालन अहिंसा के लिये है और उस ब्रह्मचर्यको ही शील कहते हैं । अथवा शीलसे सदाचार भी लिया जाता है और जिसके पालने में किसीको बाधा न हो वही सदाचार कहलाता है; अतएव सदाचार सबका उपकारक ही होता है, क्योंकि उससे किसीका भी अपकार नहीं होता ।
यथा
“ लोकापवादभीरुत्वं दीनाभ्युद्धरणादरः । कृतज्ञता सुदाक्षिण्यं सदाचारः प्रकीर्तितः " ॥ १ ॥
भावार्थ - प्रामाणिक लोगोंके अपवाद से डरना, और दीनोंके उद्धार में आदर करना, तथा आदर किये हुवे गुणोंको जानना तथा सुन्दर दाक्षिण्यको सदाचार कहते हैं । ऐसे सुन्दर आचार को ही शील कहते हैं; तथा जिसके आचरण से इन्द्रियोंका निग्रह होता है उसे तप कहते हैं, अर्थात् कषायोंकी शान्ति और सर्वथा आहारका त्याग ही तप है ।