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(७०) करके उसपर मुष्टयादि प्रहार से गतप्राण कर देते हैं, तदनन्तर उसके अवयवों को अलग अलग कर उसमें से कुछ हिस्सा हवन के काम में लाते हैं, बहुत सा हिस्सा स्वयं खाजाते हैं, और जो कुछ अवशिष्ट भाग उसका बचता है उसको यज्ञ कर्म में भाग लेने के लिए यज्ञ में आये हुए आस्तिकों को प्रसादरूप से देते हैं। अब इन याज्ञिकों की किस में गणना करनी चाहिये? इसका विचार पाठकलोग अपने आप ही कर सकते हैं।
पूर्वोक्त बातों से यह सिद्ध किया जाता है कि किसी कारण से भी पशु से यज्ञ करना उचित नहीं है । जब राजा वसु भागवत, दानीश्वर, सत्यवादी, श्रेष्ठ और सब भूतों के प्रियंकर होने पर भी अजशब्द का पशु हो अर्थ मानकर नरक में गये, तो फिर साधारण मनुष्यों की क्या दशा होगी यह विचारणीय है। अब महाभारत अनुशासन पर्व के अध्याय ११६ पृष्ठ १२६ मे युधिष्ठिर ने भीष्मपितामह से जो अहिंसाविषयक प्रश्न किया है किमांस खाने से क्या और कैसा दोष होता है ? और उसके त्याग करने से क्या गुण है ?; वही दिखलाया जाता है।
यथा
युधिष्ठिर उवाच" इसे वै मानवा लोके नृशंसा मांसगृद्धिनः । विसृज्य विविधान् भक्ष्यान् महारक्षोगणा इव" ॥१॥