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________________ ( ७१ ) अपूपान् विविधाकारान् शाकानि विविधानि च । खाण्डवान् रसयागान्न तथेच्छन्ति यथाऽऽमिषम् ॥२॥ " तत्र मे बुद्धिरत्रैव विषये परिमुह्यते । न मन्ये रसतः किञ्चिन् मांसतोऽस्तीति किञ्चन" ॥३॥ 64 " तदिच्छामि गुणान् श्रोतुं मांसस्याभक्षणे प्रभो ! | भक्षणे चैव ये दोषास्तांश्चैव पुरुषर्षभ ! " ॥ ४ ॥ " सर्व तन धर्मज्ञ ! यथावदिह धर्मतः । किञ्च भक्ष्यभक्ष्यं वा सर्वमेतद् वदस्व मे " ॥ ५ ॥ यथैतद्यादृशं चैव गुणा ये चास्य वर्जने । दोषा भक्षयतो येsपि तन्मे ब्रूहि पितामह ! " ॥ ६ ॥ 44 , भावार्थ - यह प्रत्यक्ष दृश्यमान मनुष्यलोग लोक में महाराक्षस की तरह दिखाई देते हैं, जो नाना प्रकार के भक्ष्यों को छोड़ कर मांसलोलुप मालूम होते हैं, क्योंकि नाना प्रकार के अपूप ( पूआ ) तथा विविधप्रकार के शाक, खंड (चीनी) से मिश्रित पक्वान्न और सरस खाद्य पदार्थ से भी विशेषरूप से आमिष (मांस) को पसन्द करते हैं । इस कारण इस विषय में मेरी बुद्धि मुग्धसी हो जाती है कि मांसभोजन से अधिक रसवाला क्या कोई दूसरा भोजन नहीं है ? इससे हे प्रभो ! मांस के त्याग करने में क्या २ गुण होते है, पहिले तो मैं यह जानना चाहता हूँ; पीछे खाने में क्या २ दोष हैं यह भी मुझे जानना है । हे धर्मतत्त्वज्ञ !
SR No.002390
Book TitleAhimsa Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1923
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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