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(६९) विरोध और निश्चितार्थ दोनों नहीं है वहाँ भूतार्थवाद ही होता है-जैसे " रावणः सीतां जहार" अर्थात् रावण ने सीता का हरण कर लिया, इसमें न तो कोई विरोध है,
और न पहिले ऐसा निश्चय ही था, किन्तु बात तो ठीक ही है, इसी तरह मुनियों का पक्ष भी भूतार्थवाद ही है, परन्तु अज शब्दका पशु अर्थ बतानेवाले देवताओं का पक्ष तो पहिले प्रत्यक्ष प्रमाण से ही दूषित है, तदनन्तर शास्त्रप्रमाण से भी दूषित है, उसीप्रकार अनुभव और लोकव्यवहार से भी दोषग्रस्त है । क्योंकि पशुहनन के समय पशु मारनेवाले पुरुष की मनोवृत्ति, और शरीराकृति, प्रत्यक्ष ही परम क्रूर दिखाई देती है।
पाठकवर्ग। पशुवध से स्वर्ग होना बुद्धिमानों के अनुभव में भी ठीक नहीं मालूम होता, क्योंकि 'यद दीयते तत् प्राप्यते' अर्थात् जो दिया जाता है वही मिलता है, इस न्याय के अनुसार तो सुखदेनेवाला सुख,
और दुःखदेनेवाला दुःख, अभय दाता अभय, और भयदेनेवाला पुरुष भय को ही प्राप्त होना चाहिये। किन्तु यज्ञ में जो पशु मारे जाते हैं वे न तो निर्भय, और न सुखी ही दिखाई देते हैं, बल्कि भयभ्रान्त और महादुःखी ही दिखलाई पड़ते हैं, तो फिर पशुमारनेवाला स्वर्ग में किस तरह जा सकता है ? और लोकव्यवहार में भी कोई उत्तम जाति का पुरुष मृतप्राणी का स्पर्श भी नहीं करता और यदि कोई मरे हुए जीव को छूता है तो वह नीच ही गिना जाता है। अब यह समय विचार करने का है कि यज्ञमण्डप में वेद मन्त्रोंके द्वारा याज्ञिक लोग, बकरे के मूंह को यत्र के आटा आदि से बन्द