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क्यों न हो? मोक्षावस्था में ज्ञान है या नहीं है ?। है तो वह हमको इष्ट है। वाह ! क्या कर्मों को छोड कर मुक्तिगामी जीव अज्ञान के भागी होते हैं ? मुक्ति में ज्ञानादि यदि न मानाजाय तो पाषाण और मुक्तात्मा का भेद क्या होगा ?, इत्यादि अनेक आपत्तियाँ आत्मा के व्यापक मानने में आती हैं । अतएव औपचारिक कायपरिणाम आत्मा में मानना ही उचित है, उस आत्मा के दुःखी या क्लेशी अथवा प्राणमुक्त करने से हिंसा होती है । उस हिंसा का त्याग रूप अहिंसा धर्म संपूर्ण प्राणियों को शुभावह है।
बहुत से लोग तो केवल शब्दशास्त्रं को ही पढ़कर अपने को बड़ा पण्डित मानते हैं, उनसे कोई जिज्ञासु पुरुष पूछे कि-हे महाराज! जैनधर्म कैसा है ? तो उसका उत्तर देने के लिये और अपने पाण्डित्य की रक्षा करने के लिये तथा संसार समुद्र की वृद्धि करने के लिये जैनधर्म का स्वरूप न जानकर कहते हैं कि ईश्वर को जैनी लोग नहीं मानते हैं, और आत्मा को अनित्य मानते हैं, तथा श्राद्धादि कृत्यों को भी वे लोग मिथ्या मानते हैं । इत्यादि अपने मन का जवाब देकर जिज्ञासु मनुष्यको उसकी कल्याणेच्छा से अस्त व्यस्त कर देते हैं । ऐसी उनलोंगों की बनावटें अब भी प्रत्यक्ष दिखाई पड़ती हैं।
पाठक महाशय ! जहां तक जैनशास्त्र नहीं देखा जायगा और पक्षपात रूप चश्मा नही हटाया जायगा वहाँ तक धर्मक्रिया भी विडम्बना रूपही है । जैनोंने