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( १२२) द्रव्य है वह भी स्थिति उत्पाद व्यय शब्द का भागी होता है। स्थिति कहने से द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से अच्छेदी, अभेदी, नित्य, शुद्ध, बुद्ध आत्मा है । उत्पाद, व्यय, जन्म मरणादि को लेकर आत्मा में पर्यायार्थिकनय स्वीकार करना पडता है। क्योंकि उनका अन्योन्य कार्यकारणभाव है। वही अनादि कालका व्यवहार चित्त में रखकर तत्त्ववेत्ताओं ने आत्मा को ज्ञाता, द्रष्टा, भाक्ता, कर्ता और कायपरिमाण माना है किन्तु वास्तविक में उसमें कायपरिमाणत्व भी नहीं है क्योंकि वह तो अरूपी पदार्थ है । और परिमाण तो रूपी पदार्थ में ही होता ह । आकाश में यह परिमाण जो माना जाना जाता है वह वास्तविक नहीं है किन्तु औपचारिक है। वैसे ही आत्मा का परिमाण नहीं है किन्तु कर्मरूप शङ्खला से बंधे हुए शरीरका संबन्धी होने से शरीरी कहा जाता है। याने कायपरिमाण जो माना हुआ है सो युक्तियुक्त है। व्यापक परिमाण मानने से अनेक आपत्तियाँ आती हैं, क्योंकि व्यापक परिमाण मानने से घटपट के नाश के समय आत्मा को व्यापक होने से दुःख होना चाहिए । किन्तु होता नहीं है । इसका उत्तर यही है कि ज्ञान होने का नियम शरीर मानना, 'शरीरावच्छेदेन ज्ञानमुत्पद्यते' ऐसा मानने से भी ठीक नहीं होता है । क्योंकि मोक्षावस्था में शरीर नहीं है इस लिये ज्ञान नहीं होना चाहिये । और मृतावस्था में शरीर के रहने पर ज्ञान होना चाहिये । इसके उत्तर में कदाचित् यह कहा जाय कि मृतावस्था में आत्मा नहीं है, वाह ! व्यापक परिमाणवाला आत्मा जब सर्वत्र है, तब मृतशरीर में