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( १२१ ) चिद्रूप है या अचिद्रूप ? । अचिद्रूप पक्ष मानने में, अहं सुखी, अहं दुःखी यह प्रत्यय (ज्ञान) नहीं होगा। और यदि चिद्रूप मानोगे तो शब्दान्तर से शरीर से भिन्न आत्मा ही सिद्ध हुआ। अब इन्द्रिय को आत्मा मानने वाले का भ्रम दूर किया जाता है । इन्द्रिय को आत्मा माननेवालों के मत में जो सामुदायिक ज्ञान होता है वह अब नहीं होना चाहिये । अर्थात् मैंने सुना और मैंने देखा, तथा मैंने स्पर्श किया इत्यादि सामुदायिक प्रतीति आबालगोपाल को जो होती है वह नहीं होगी। क्योंकि सुननेवाला तो करणेन्द्रिय है और देखनेवाला चक्षुरिन्द्रिय है, तथा गन्धग्राहक घ्राणेन्द्रिय है एवं रसलेनेवाला रसनेन्द्रिय है, और स्पर्श करनेवाला स्पर्शन्द्रिय है । तो जब इन्द्रियादि ही आत्मा तुम्हारे मत में हैं तो तत्तत् इन्द्रियां से भिन्न भिन्न ज्ञान होना चाहिये किन्तु वैसा न होकर सामुदायिक ज्ञान होता है । अतएव इन्द्रियों का एक नायक आत्मा अवश्य होना चाहिये । ऐसा न हो तो मृतावस्था में इन्द्रियाँ तो नष्ट नहीं होती हैं किन्तु ज्ञान नहीं होता। उसका कारण वहां पर आत्मा का अभाव होनाही मानना पड़ेगा। क्योंकि आत्मा शरीर और इन्द्रियों को छोड़कर गत्यन्तर करता है इसलिये आत्मा इन्द्रिय नहीं है । किन्तु भिन्न हो है ।
वास्तविक में तो आत्मा नित्य है किन्तु कर्म के संबन्ध से जन्म मरणादि होने की अपेक्षा से अनित्य माना जाता है । जैनशास्त्रकार द्रव्यमात्र को उत्पाद स्थिति व्ययात्मक मानते हैं । आत्मो भी एक सच्चिदानन्दमय