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________________ ( १२० ) वान् स आत्मा, अस्मदाद्यात्मा इत्यादि युक्तियों से आत्मसिद्धि होने के बाद, परदेहादि में भी आत्मा की सिद्धि होगी । तो फिर आत्मासिद्धि होने के बाद परलोकादि की सिद्धि स्वाभाविक हो जायगी, और परलोकादि भी पुण्यपाप से सिद्ध हुआ तो धर्माधर्म भी सिद्ध ही है । धर्माधर्म की सवदशा में, तप, जप, ज्ञान, ध्यानादि सभी कृत्य सफल हैं । तिसपर भी इनको जो निष्फल कहते हैं उन्हें विचारशून्य कहना चाहिये । और जहाँ पर आत्मा पदार्थ सिद्ध है वहां पर अहिंसा का विचार युक्तिसिद्ध है । यद्यपि बहुत से लोग शरीर को ही आत्मा मानते हैं तथा बहुत I 1 लोग इन्द्र को ही आत्मा मानते हैं । इत्यादि अनेक तरह के कल्पितमतजाल दुनियाँ में फैले हुवे हैं । जिनमें मछलियों की तरह भद्रिक लोग फसकर कष्ट का पारहे हैं । उन लोगों पर भावदया लाकर यथाशक्ति शुभ मार्ग दिखलाने की जो चेष्टा करता है वही पारमार्थिक परोपकारी है | "" शरीर और इन्द्रियों को आत्मा माननेवाले वस्तुतः चार्वाक के संबन्धी हैं, क्योंकि शरीर को ही आत्मा मानते हैं उनसे यदि छा जाय कि मृतावस्था में शरीर ता बसाही बना रहता है किन्तु पहिले की तरह उसमें चेष्टा क्यों नहीं देखी जाती ? | उसके उत्तर में वे लोग यदि यह कहे कि वैसी एक शक्ति का उसमें अभाव हो गया है, तो उनसे यह पूछना चाहिये कि वह तुह्मारी शक्ति शरीर से भिन्न है या अभिन्न ? | अभिन्न पक्ष का आश्रय नहीं लिया जा सकता । क्योंकि अभिन्न हो ता फिर मृतशरीर में भी वह शक्ति हानी चाहिये । भिन्न मानोगे तो वह शक्ति
SR No.002390
Book TitleAhimsa Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1923
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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