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________________ ( ११९ ) दिखाई देती है; इसी तरह अन्य मैं भी अन्य प्रकारकी मालूम पड़ती है । अतएव वह शक्ति भूतों से सर्व प्रकार स्व. तन्त्र माननी पड़ेगी, तथा कर्माधीन भी माननी होगी। क्योंकि विचित्र प्रकार के: कर्मों से विचित्र स्वभाववाली देख पड़ती है। उसी शक्ति को आस्तिकलोग आत्माशब्द से कहते हैं । किन्तु यदि चार्वाक लोगों से प्रकारान्तर से पूछा जाय कि तुम लोग नास्तिक मत की दृढ़ता के लिये जो हेतु देते हो वह प्रामाणिक है या अप्रामाणिक ? । अप्रामाणिक तो नहीं कहकसते, क्योंकि सारा कर्तव्य ही तुह्मारा अप्रामाणिक हो जायगा और प्रामाणिक पक्ष में प्रश्न उठता है कि उसमें प्रमाण प्रत्यक्ष है या परोक्ष ? । परोक्ष प्रमाण को तो परलोकादि के मानने के डर से तुम नहीं मान सकोग। अब केवल प्रत्यक्ष बचता है । क्योंकि 'प्रत्यक्षमेकं चार्वाकाः' यदि प्रत्यक्ष प्रमाण को ही प्रमाण मोनोगे तो वह तुह्मारा प्रत्यक्ष प्रमाण प्रमाणीतभूत है या नहीं, ऐसा कहने वालों को समझाना पड़ेगा । जो प्रत्यक्ष प्रमाण प्रमाणीभूत है तो कौन प्रमाणसे प्रमाणीभूत है? । इस पर यदि कहोगे कि प्रत्यक्ष से, तो वह प्रत्यक्ष प्रमागीभूत है, या नहीं: इत्यादि अनवस्थादोष आ जायगा; इसलिये प्रत्यक्ष प्रमाण को प्रमाण मानने के लिये अनुमान करना पड़ेगा, जैसे प्रत्यक्ष, अव्यभिचारित्वात्, यदव्यभिचारि तत् प्रमाणं, यथा घटज्ञानम्, इत्यादि अनुमान का आधार, प्रत्यक्षं की प्रमाणता स्वीकार करने में लेना पड़ेगा। तो फिर जब अनुमान अनायास सिद्ध हुआ तो आत्मा पदार्थ भी सिद्ध हो गया। क्योंकि-"अस्ति खलु आत्मा सुखदुःखादि संवेदनवत्त्वात, यः सुखदुःखादिसंवेदन
SR No.002390
Book TitleAhimsa Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1923
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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