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- रागद्वेषादि अठारह दूषण रहित, ज्ञान, दर्शन, चारित्रमय, शुद्ध, बुद्ध निरञ्जन, वीतराग देव, जो कि अर्हन्अरिहन्तादि शब्दों से प्रसिद्ध है उसी को ईश्वर माना है । आत्मा के संबन्ध में जैन शास्त्रकारों ने जो खोज की हैं वह दूसरे दर्शनों में कहीं भी देखने में नहीं आती है । जैनों का नित्यानित्य का स्वरूप जो पक्षपातरहित देखा जाय तो अवश्य ही एकान्तपक्ष बुद्धिमानों से तिरस्कारदृष्टि से देखा जायगा ।
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आत्मा मूलरीति से नित्य है किन्तु जन्म मरणादि धर्मों को लेकर नये नये पर्यायान्तर को धारण करता है इसलिये अनित्य दिखलाया है । सापेक्षित आशयों को न जानकर जो पण्डितलोग अंड बण्ड कहने को साहस करते हैं वह उनकी बडी भारी भूल है । हिंसा कर्म से युक्त श्राद्धादि जा है उसको ही जैन नहीं मानते हैं, इतनाही नहीं, किन्तु उस श्राद्ध करनेवाले की भी निषेध करते हैं । यथा
" एकस्थानचरोऽपि कोऽपि सुहृदा दत्तेन जीवन्नपि
प्रीतिं याति न पिण्डकेन, तदिदं प्रत्यक्षमालोक्यते । जातः क्वाप्यपजीवितच किल यो, विभ्रन्नलक्षां तनुं मुग्धैः श्वव स तते प्रियजनः पिण्डेन कोऽय नयः ॥ १ ॥
भावार्थ - एक स्थान में रहनेवाला हो तथा जीता भी हो तो भी वह मित्र के दिये हुए कल्पित अन्न से तृप्ति को प्राप्त नहीं होता है । यह बात प्रत्यक्ष देखने में आती है, अर्थात् स्वयं भोजन करने से ही तृप्ति होती