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(३३) माननीय है। यदि इस बातके न मानने वालेको नास्तिक कहा जाय, तो अतिशयोक्ति नहीं है। जीवहिंसा के समान दूसरा कोई पाप नहीं है और दया के समान दूसरा कोई धर्म नहीं है । इसलिये हिंसा से कभी धर्म नहीं होता, इसके लिये कहा है कि" यदि ग्राबा तोये तरति तरणिर्यादयते __ प्रतीच्यां सप्ताचियदि भजति शैत्यं कथमपि । यदि क्षमापीठं स्यादुपरि सकलस्यापि जगतः
प्रसूते सत्वानां तदपि न वधः कापि सुकृतम्"॥१॥ भावार्थ-यद्यपि जल में पत्थर तैरता नहीं है, यदि वह भी किसी प्रकार तैरे; और सूर्य पश्चिम दिशामें उदय नहीं होता, यदि वह भी किसी प्रकार उदय हो, और अग्नि कदापि शीतल नहीं होती, यदि वह भी, सीता ऐसी महासती के प्रभाव से शीत हो जाय, एवं पृथ्वी कभी अधोभाग से ऊपर नहीं होती, यदि वह भी हो तो भी प्राणियों का वध कभी सुकृत को उत्पन्न नहीं करेगा । और इसी बात को दृढ करने के लिये जैनाचार्यों ने कहा है कि" स कमलवनमग्नेर्वासरं भास्वदस्ता
दमृतमुरगवत्रात् साधुवादं विवादात् । रुगपगममजीर्णाज्जीवितं कालकूटा
दभिलषति वधाद् यः प्राणिनां धर्ममिच्छेत् " ॥१॥