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________________ (३४) भावार्थ-जो पुरुष प्राणियों के वध से धर्म की इच्छा करता है वह दावानल से कमल की इच्छा करता है, या सूर्य के अस्त होने पर दिन की वाञ्छा करता है, अथवा सर्प के मुखसे अमृत की अभिलाषा करताहै, तथा •विवाद ( झगड़े ) से अपने को अच्छा कहलाना चाहता है, और अजीर्ण से रोग की शान्ति चाहता है और हलाहल ( जहर ) से जीने की इच्छा करता है । विवेचन-यद्यपि पत्थर जल में तैरता नहीं फिर भी यदि किसी प्रकार तैरे, तो भी अश्चर्य नहीं, किन्तु प्राणियों के वध से पुण्य कदापि नहीं हो सकता । धूममार्गानुसारी कहते हैं कि हमलोक मन्त्र से पवित्र करके मांस को खाते है, अतएव दोष नहीं लगता, किन्तु पुण्य का ही उपार्जन है, यह बोत ठीक नहीं है; क्योंकि विवाहादि कृत्यों में मन्त्र पढ़े जाते हैं उसमें विपरीत भी फल दिखाई देता है, तब मांसाहार से विपरीत फल क्यों न हो ? मन्त्रसंस्कृत मांस भक्ष्य है और दूसरा अभक्ष्य है, यह कहना मात्र है; किन्तु मांसमात्र अभक्ष्य ही है; क्योंकि विष को मन्त्र से संस्कृत करोगे तो भी मारेगा और असंस्कृत रहने पर भी मारेही गा । जान कर खाने में या अनजान से खाने में, जीने के लिये या मरने के लिये, या किसी भी रीति से खाया जाय तो भी प्राणनाश ही करेगा । हिंसाजन्य पाप का नाश कभी नहीं होता । बुद्धजी के ही वचनों को देखिये" इत एकनवति कल्पे शक्त्या में पुरुषो हतः । तेन कर्मविपाकेन पादे विद्धोऽस्मि भिक्षवः !" ॥१॥
SR No.002390
Book TitleAhimsa Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1923
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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