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________________ अर्थात्-इस भव से एकानवे कल्प में मैंने शक्ति से पुरुष को मारा था, उससे उत्पन्न हुए पाप कर्म के विपाक से, हे साधुजन ! मैं कण्टक से पाद में विद्ध हुआ हूँ । किये हुए कर्म, भवान्तर में भोगनेही पड़ते हैं " यादृशं क्रियते कर्म तादृशं प्राप्यते फलम् " याने जैसा कर्म किया जाता है वैसाही फल मिलता है। कर्म को किसीका भी लिहाज नहीं है। पशुमारनेवाला जरूर पाप का भागी होता है और नरकमें जाता है। यथा " यावन्ति पशुरोमाणि पशुगात्रेषु भारत !। तावद् वर्षसहस्राणि पच्यन्ते पशुघातकाः " ॥१॥ भावार्थ हे भारत ! पशु के शरीर में जितने रोम हैं उतने हजार वर्ष पशु के घातक नरक में जाकर दुःख भोगते हैं । याने स्वकृत-कर्मानुसार ताड़न, तर्जन, छेदन, भेदनादि क्रिया को सहते हैं। ऐसे स्पष्ट लेख रहने पर भी हिंसा में धर्म मानने वाले मनुष्य, महानुभाव भद्रलोगों को भ्रम में डालने के लिये कुयुक्ति देते हैं कि विधिपूर्वक मांस खाने से स्वर्ग होता है, इतनी आज्ञा देने से अविधि से मांसखानेवाले लोग भय से रुक जावेंगे और हिंसा भी नियमित ही होगी । इत्यादि कुत्सित विचारों के उत्तर में समझना चाहिए कि-अविधि से मांस खानेवाले तो अपने आत्मा की निन्दा और पश्चात्ताप भी करेंगे, क्योंकि आत्मा का स्वभाव मांस खाने का नहीं है, किन्तु विधिपूर्वक मांस खानेवाले तो पश्चात्ताप भी नहीं करते,
SR No.002390
Book TitleAhimsa Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1923
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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