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बल्कि धर्म मानकर प्रसन्न होते हैं, तथा एक दफे मांस का स्वाद लेने से समय समय पर देवपूजा के व्याज से उदर की पूजा करेंगे और हिंसा के निषेध करनेवालों के सामने विवाद करने को तैयार होंगे। तब सोचिये कि इससे अनर्थ हुआ कि लाभ हुआ? इस बात का विचार बुद्धिमानों को करना चाहिए । मैं कह सकता हूँ कि स्वर्गकी लालचसे अन्धश्रद्धावाले अनर्थ करते हैं । सांख्य लोग भी मांसभोजियों के प्रति आक्षेप पूर्वक उपदेश करते हैं। यथा" यूपं छित्त्वा पशून हत्वा कृत्वा रुधिरकर्दमम् ।
यद्येवं गम्यते स्वर्ग नरके केन गम्यते ? " ॥१॥ अर्थात्-यज्ञस्तम्भ को छेदकर, पशुओं को मारकर, रुधिर का कीचड़ करके यदि स्वर्ग में गमन होता हो, तो फिर नरक में किन कर्मोसे गमन हो सकेगा ? अर्थात जीवहिंसा के समान पाप दुनिया भर में नहीं है। वैसे क्रूरकर्मके करने से यदि स्वर्ग में गमन होता हो तो हिंसासे अतिरिक्त कौन कर्म है कि जो नरक में लेजावे । देखिये तुलसीदास के अहिंसा-पोषक वचनों को। यथा" दया धर्म को मूल है पापमूल अभिमान ।
तुलसी दया न छाडिए जबलग घट में प्रान" ॥१॥ अर्थात्-धर्म का मूल दया है, तो हिंसा जहाँ होगी