________________
( ३७ )
वहाँ पर दया का नाम भी नहीं रहेगा । और मूल विना वृक्ष रह नहीं सकता और वृक्ष के विना फल नहीं हो सकता; यह बात साधारण भी मनुष्य समझ सकता है, जैसे कहा है कि
46
दयामहानदीतीरे सर्वे धर्मास्तृणाङ्कुराः ।
तस्यां शोषणुपेतायां कियन्नन्दन्ति ते चिरम् ?" ॥१॥
भावार्थ - दयारूप महानदी के तीर में सभी धर्म तृणाङ्कुर के समान हैं। उस नदी के सूख जाने पर वे अङकुर कहां तक आनन्दित रहेंगे ?
विवेचन-नदी के तीर में वृक्ष, घास, लता आदि सभी वृद्धि को प्राप्त होते हैं, नदी के जल की शीतल हवा के स्पर्श होने से नवपल्लवित रहते हैं, किन्तु नदी वर्षा के अभाव से यदि शुष्क हो जावे तो उसके आधार से उत्पन्न सभी वनस्पति नष्ट हो जाती है, वैसे ही दयारूप नदीके अभावसे धर्मरूप अङ्कुर स्थिर नहीं रह सकते । नीतिशास्त्रकार ने भी दया की मुख्यता दिखलाई है ।
यथा-
“यथा चतुर्भिः कनकं परीक्ष्यते नित्रर्षणच्छेदन तापताडनैः । तथैव धर्मो विदुषा परीक्ष्यते श्रुतेन शीलेन तपोदयागुणैः ॥ १ ॥
15
अर्थात् - जैसे निघर्षण ( कसौटी पर कसना ) तथा छेदम ( काटने ) ताप ( तपाने ), ताड़न ( पीटने )