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(३८) आदि से सुवर्ण परीक्षित होता है वैसेही शास्त्र, शील, तप, दया आदि गुणों से विद्वान् पुरुष धर्मकी परीक्षा करते हैं।
विवेचन-जब सुवर्ण चञ्चल और विनश्वर वस्तु रहने पर भी बुद्धिमान उसकी परीक्षा करनेको नहीं चूकते, तो अविनश्वर, अचल, अनुपम सुख को देनेवाले धर्मरत्नकी परीक्षा करें तो इसमें आश्चर्यही क्या है ? जैसे सुवर्णकी परीक्षा के लिये निघर्षणादि पूर्वोक्त चार प्रकार दिखलाये गये हैं वैसेही धर्मरत्न की परीक्षा के लिये श्रुत, शील, तप और दया दिखलाई है; जिस शास्त्र में परस्पर विरुद्ध बात न हो किन्तु युक्तियुक्त ‘पदार्थोकी व्याख्या हो, तथा परोपकारादि गुणों का वर्णन हो वह शास्त्र प्रामाणिक मानना चाहिए । शील याने ब्रह्मचर्य अथवा आचारके पालने की आवश्यकता को सहेतुक जानने वालाही ब्रह्मचर्यपालनेवाला गिना जाता है, और ब्रह्मचर्य पालन का मूल कारण जीवदयाही है। क्योंकि कामशास्त्रकार वात्स्यायन ने स्वशास्त्र में स्पष्ट लिखा है कि-स्त्रीकी योनिमें असंख्य कीड़े उत्पन्न होते हैं इसीसे उसको पुरुषसेवन करनेकी उत्कट इच्छा होती है और जैनशास्त्रकार तो स्त्रीयोनिगत वीर्य
और रुधिर में असङ्ख्य जीवकी उत्पत्ति मानते हैं, इस लिये गर्भज ९ लाख जीव एक वार मैथुन करने से मरजाते हैं और द्वीन्द्रियादि जीवों के मरनेकी संख्या दो । लाख से लेकर नौ लाख तक है एवं संमूच्छिम जीव भी असंख्यात मरते हैं। इस पर दृष्टान्त यह है कि-जैसे बांस की नली में भरी हुई सई को तप्त लोहेकी सलाई शीव्र भस्म