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(५७) हिंसाको मान दिया है, और तुच्छ इच्छा पूर्ण करने के लिये पशुओं को मनुष्य मारते हैं; किन्तु धर्मशास्त्र के विचारसे यह उचित नहीं है, क्योंकि धर्मात्मा मनुजी सभी कर्मों में अहिंसाही करने को कहते हैं, इस कारण से सूक्ष्म धर्मको प्रमाण से करना । तत्त्ववेत्ताओंने भी सर्वभूतधर्मसे अहिंसाही बड़ी मानी है।
विवेचन-राजा विचक्ष्णु क्षत्रिय होकर भी हिंसा को देख कर त्रस्त हुए, किन्तु वर्णों के गुरु ब्राह्मणों को कुछ भी डर नहीं लगता, यह भी एक आश्चर्य ही है। कितने ही मूर्ख ( गवार ) तो हिंसा करने में बड़ी बहादुरी मानते हैं, और कहते हैं कि हिंसा करनेसे हिंसकों की संख्या बढ़ती है जिससे युद्धादि कार्य में विशेष विजय होने की संभावना है; किन्तु उनलोगों की यह कल्पना निर्मूल है; क्योंकि देखिये, राजा विचक्ष्णु और प्राचीनबहिष ने यदि हिंसाका त्याग किया और हिंसाकर्म की निन्दा भी की, तो क्या उनका राज्य नष्ट हो गया ?, अथवा वे लोग लड़ाई में अशक्त हो गये ?, या वे शत्रुओं से हार गये ? और ब्राह्मण लोग श्राद्ध में, मधुपर्कम, यज्ञ में यथेष्ट मांस खानेसे क्या विजयी हुए ? अथवा लड़ाई में सफलता प्राप्त की ? मैं तो यही कहता हूं कि वे लोग पेट को बढ़ाकर दरिद्र हो जायेंगे और दरिद्र होकर फिर कुछ भी सिद्ध नहीं कर सकेंगे। राजाने हिंसा करने वाले ब्राह्मणों को आशीर्वाद कैसा दिया? यह बात चतुर्थ श्लोकके अक्षरार्थसे ऊपर ही कही हुई है किन्तु मैं उसको कुछ और विवेचन करता हूं
हिंसाकर्मसे भिन्न कर्मको मर्यादा कहते हैं-उसको