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गति को पावेंगे? यही विचारलेना चाहिये ? तथा देखिये महाभारत शान्तिपर्व के मोक्षधर्माधिकार अध्याय १६५ पृष्ठ १४१ में यज्ञ का स्पष्ट ही निषेध किया है
यथा
" छिन्नस्थूणं वृषं दृष्ट्वा विलापं च गवां भृशम् ।
गोग्रहे यज्ञवाटस्य प्रेक्षमाणः स पार्थिवः" ॥२॥ " स्वस्ति गोभ्योऽस्तु लोकेषु ततो निर्वचनं कृतम् । हिंसायां हि प्रवृत्तायामाशीरेषां तु कल्पिता" ॥३॥ " अव्यवस्थितमर्यादेविमूढेर्नास्तिकैनरैः।
संशयात्मभिरव्यक्तैर्हिसा समनुवर्तिता ॥ ४ ॥ " सर्वकर्मस्वहिंसा हि धर्मात्मा मनुरवीत् ।
कामकाराद् विहिंसन्ति बहिर्वेद्यान् पशून्नरः" ॥५॥ " तस्मात् प्रमाणतः कार्यो धर्मः सूक्ष्मो विजानता ।
अहिंसा सर्वभूतेभ्यो धर्मेभ्यो ज्यायसी मता" ॥६॥ भावार्थ-प्रथम श्लोक में छिन्न शरीरवाले वृषभ का और गौओंका विलाप देखकर, तथा मारनेके लिये यज्ञवाटमें ब्राह्मणों को देख कर विचक्ष्णु राजाने निर्वचन किया कि गौवों का कल्याण हो, और उसके बाद जो जो अहिंसा धर्म के नाशक हैं उन लोगों को आगे के श्लोक से आशीर्वाद दिया कि मर्यादारहित महामूर्ख नास्तिकशिरोमणि संशयवान् अव्यक्तसिद्धान्तानुयायी पुरुषोंने ही