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(५५) गवत के चतुर्थस्कन्ध को देखजाने का मैं अनुरोध करता हूँ। यज्ञ में हिंसा करने का निषेध महाभारत शान्तिपर्व के मोक्षाधिकार में अध्याय २७३ पृष्ठ १५४ में लिखा है।
यथा"तस्य तेनानुभावेन मृगहिंसाऽऽत्मनस्तदा । तपो महत् समुच्छिन्नं तस्माद् हिंसा न यज्ञिया ॥१८॥ "अहिंसा सकलो धर्मोऽहिंसाधर्मस्तथा हितः। सत्यं तेऽहं प्रवक्ष्यामि नो धर्मः सत्यवादिनाम्" ॥२०॥
भावार्थ-स्वर्ग के अनुभाव से एक मुनिने मृगकी हिंसा की, तब उस मुनिका जन्मभर का बड़ा भारी तप नष्ट होगया, अतएव हिंसासे यज्ञ भी हितकर नहीं है। वस्तुतः अहिंसा ही सकल धर्म है, और अहिंसा धर्म ही सच्चा हितकर है। मैं तुम से सत्य कहता हूं कि सत्यवादी पुरुषका हिंसा करनेका धर्म नहीं है ।
विवेचन-पूर्वोक्त दोनों श्लोकोंमें लिखा है कि किसी मुनिके आगे मुगका रूप धर कर धमें आया। तब उसको मुनिने स्वर्गके लिये मारा, इस कारणसे मुनिका सब तप नष्ट होगया; तो विचार करने की बात है कि जब ऐसे मुनिका भी तप हिंसा करने से नष्ट होगया तब बिचारे उन लोगों का क्या हाल होगा कि जिन्होंने कभी तप का लेशमात्र भी नहीं अर्जन किया ? केवल सांसारिक सुख में लम्पट यज्ञ निमित्त हिंसा करके कौनसी