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(५८) स्थिर याने व्यवस्थित नहीं रखनेवाले ही अव्यवस्थित मर्यादावाले पुरुष कहे जाते हैं; उसका कारण केवल मुर्खता ही है, अत एव दूसरा विशेषण — विमूढैः' दिया है, किन्तु यह भी विना कारण नहीं कहा जासकता, इसलिये 'नास्तिकैः' यह विशेषण दिया है । धर्मश्रद्धारहित पुरुष को नास्तिक कहते हैं, अत एव 'संशयात्मभिः' यह भी विशेषण दिया है और संशयशील वही पुरुष है जो आत्मा और देह में कभी अभेद बुद्धि और कभी भेद बुद्धि करता हो। तथा आत्मा यदि भिन्न है तो कर्ता है या अकर्ता, और यदि कर्ता है तो वह एक है या अनेक, तथा यदि एक है तो सगवान् है या असङ्ग, इत्यादि संशयवालों के लिये ही संशयात्मभिः” यह कहागया है, और 'अव्यक्तैः' यह जो विशेषण दिया है उसका तात्पर्य यह है कि यज्ञादि कर्मोसे ही अपनी ख्याति (प्रसिद्धि) चाहनेवाला पुरुष हिंसाको श्रेष्ठ मानता है। ___स्पष्ट रूप से ऐसे श्लोकोंके रहने पर भी लोग हिंसा करना बन्द नहीं करते, यह बड़ा ही आश्चर्य है; अथवा इन्हें महामोह के पाश में फंसा हुआ समझना चाहिये । इस लिये यह सिद्ध हुआ कि यज्ञ के उद्देश्य से भी कदापि मांस खाना उचित नहीं है ।
यही बात महाभारत शान्तिपर्व के २६५ वें अध्याय में लिखी है कि" यदि यज्ञांश्च वृक्षांश्च यूपांश्चोद्दिश्य मानवाः ॥ __ वृथा मांसं न खादन्ति, नैप धर्मः प्रशस्यते " ॥ ८॥