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भावार्थ - यज्ञपरायण जो मनुष्य ( केवल यज्ञोंका, वृक्षोंका और यज्ञस्तम्भोंका उद्देश्य करके ( मांस खाने को छोड़कर ) वृथा मांस नहीं खाते, यह धर्म भी प्रशस्त नहीं है, अर्थात् विधिविहित मांस का खाना भी उचित नहीं है । तथा हिंसाका निषेध भी इसी अध्याय में दिखलाया है ।
यथा
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सुरां मत्स्यान् मधु मांसमासवं कृसरौदनम् । धूर्तेः प्रवर्तितं ह्येतद् नैतद् वेदेषु कल्पितम् " ॥ ९ ॥
भावार्थ - मदिरापान, मत्स्यादन, मधु - मांसभोजन, आसव याने मद्य का पान, और तिलमिश्रित भात का भोजन, ये सब धूर्तों से ही कल्पित हुआ है किन्तु वेदकल्पित नहीं है ।
विवेचन - व्यासर्षिने स्वयं यह कहा कि- वेद में हिंसा नहीं है और यदि है तो धूतने ही अर्थका अनर्थ कर डाला है, यह बात इसी नववें श्लोक से स्पष्ट होती है । फिर भी हिंसा करनेवाले पुरुषोंने क्यों सब जगह बलिदान की बहुत महिमा बढाई है ? और वे केवल यज्ञमें ही पशुकी हिंसा करते हों सो भी नहीं, किन्तु यज्ञस्तम्भ के लिये जिस वृक्षको प्रसन्न करते हैं उसके पहिले भी बलिदान करते हैं फिर उसका मांस यज्ञके करानेवाले खाते हैं और वृक्ष का जो यूप बनता है उसको जब यज्ञ मण्डप में स्थापन करते हैं उस समय भी बलिदान देते हैं यज्ञाश्रित वृक्षका और यज्ञस्तम्भ का उद्देश्य करके जो मांस खाते हैं वह पूर्वोक्त आठवें श्लोक से स्पष्ट मालूम