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(६०) होता है, किन्तु व्यासर्षि ने तो इसको भी स्वीकार नहीं किया, बल्कि तिरस्कार ही किया है।
जिस देवके समीप बलिदान दिया जाता है उसका भजन ( पूजन ) सुरापानतुल्य है, अर्थात् उसकी सेवा सुरापान के समान पाप का कारण है । यही बात पद्मपुराण (आनन्दाश्रम सीरीज़ में मुद्रित ) के अध्याय २८० पृष्ठ १९०८ में कही है कि" यक्षाणां च पिशाचानां मद्यमांसभुजां तथा। दिवौकसां तु भजनं सुरापानसमं स्मृतम् ” ॥ ९ ॥
भावार्थ-यक्ष, पिशाच और मद्यमांस प्रिय देवताओं का भजन सुरापान के समान ही कहा है, अर्थात् सुरायान करने से जो पापबन्ध होता है वही पापबन्ध इन देवताओं के भजन से भी होता है। फिर भी जो लोग श्राद्ध में मांस खानेका आग्रह करते हैं उनलोगोंने प्रायः श्रीमदभागवत के ७ व स्कन्ध का १५ वां अध्याय नहीं देखा है। यदि देखा होता तो कभी आग्रह नहीं करते । देखिये उसके श्लोक ७ वें ११ ३ को" जयादाभिषं श्राद्धे न चायाद् धर्मतत्त्ववित् ।
सुन्योः स्वाल परा प्रीतियथा न पशुहिंसया" ।। ७ ।। " तस्मादेवोपपन्नेन मुन्यन्नेनापि धर्मवित् ।
संतुष्टोऽहरहः कुर्यानित्यनैमित्तिकीः क्रियाः" ॥११॥
भावार्थ-धर्मतत्त्वके ज्ञाता पुरुष तो श्राद्ध में न किसी को माँस देते हैं और न खाते हैं, क्योंकि मुनियों