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के खानेयोग्य व्रीहो आदि शुद्ध अन्न से पितरों को जैसी परम प्रीति होती है, वैसी पशुकी हिंसासे नहीं होती । ११ वें श्लोक के पहिले अर्थात् दशवें श्लोक में कहा है कि यज्ञ करनेवाले को देखकर पशु डरते हैं कि यह हत्यारा अज्ञानी हमलोगों को मारेगा, क्योंकि यह परप्राण से स्वप्राण का पोषण करनेवाला है। इत्यादि अधिकारके परामर्श करने के लिये ११ वें श्लोक में 'तस्मात्' पद दिया है। इसी कारण से धर्मज्ञ पुरुष दैविक कर्म के योग्य अन्न नीवारादि से, संतुष्ट होकर निरन्तर नैमित्तिक क्रियाओं को करें, परन्तु कोई पुरुष हिंसा कदापि न करे । यदि कोई पुरुष पूर्वोक्त वाक्यपर यह शङ्का करे कि सत्ययुग में ही यज्ञ, श्राद्ध और बलिदान में मांस खानेका निषेध है; किन्तु कलियुग में तो पूर्वोक्त कर्मानन्तर मांस खानाही चाहिये, तो इसके उत्तर में मैं यह कहता हूँ कि-सर्वजनप्रसिद्ध ब्रह्मवैवर्त पुराण और पाराशर स्मृति में कहे हुए कलियुग में बहुत से कार्य उनको नहीं करना चाहिए, क्योंकि उसमें इस बातके प्रतिपादक श्लोक ऐसे लिखे हैं । यथा
"अश्वालम्भं गवालम्भं संन्यासं पलपैतृकम् । देवराच सुतोत्पत्ति कलौ पञ्च विवर्जयेत् ॥ १॥
तथा बृहन्नारदीय पुराणके अध्याय ११ में भी लिखा है कि
"देवरेण सुतोत्पत्तिमधुपर्के पशोर्वधः। मांसदानं तथा श्राद्धे वानप्रस्थाश्रमस्तथा ॥ १ ॥ इमान् धर्मान् कलियुगे वानाहुर्मनीषिणः "॥