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की इच्छा न करने पर अगर किसी कारण से कोई जीव मर जावे, तो उसे फाँसी नहीं मिलती, बल्कि निर्दोष समझकर छोडदिया जाता है । क्योंकि हिंसा न करने पर भी मारने के इरादे मात्र से ही बहुत से पुरुषों को दोषपात्र मानकर न्याययुक्त दण्ड दिया जाता
| वैसेही प्रमादी पुरुष के हाथ-पैर से कदाचित् जीव न भी मरे, तो भी परिणाम की शुद्धि न होने से दोष का पात्र तो वह अवश्य गिना जाता है और अप्रमादी पुरुष यत्नपूर्वक कार्य करे और फिरभी भावीभाव के योग से यदि कदाचित् कोई जीव मर भी जाय तो भी हिंसाजन्य दोष उसके शिरपर नहीं पड़ता । इस तरह तस्ववेत्ताओं का अभिप्राय है । दशवैकालिक सूत्र में भी शिष्य इसतरह गुरु से प्रश्न करता है कि
"कहं चरे कहं चिट्टे कहमासे कहूं सए ।
कह भुजंतो भासतो पावं कम्मं न बंधई " ॥ १ ॥
भावार्थ - कैसे चलें और कैसे खडे हों, कैसे बैठें तथा कैसे सोवें और कैसे खावें और कैसे बोलें जिसमें पापकर्म मुझसे न हो ? |
"जयं चरे जयं चिट्ठे जयमासे जयं सए ।
जयं भुजंतो भासतो पावं कम्मं न बंधई " ॥ १ ॥
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भावार्थ - यत्नपूर्वक चलो, यत्नपूर्वक खडे हो, यत्नपूर्वक बैठो और यत्नपूर्वक सोवो, यत्नपूर्वक खाओ और यत्नपूर्वक बोलो तो पापकर्म नहीं लगेगा । अर्थात्