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यथा
"आलम्भसमयेऽप्यस्मिन् गृहीतेषु पशुष्वथ । महर्षयो महाराज ! बभूवुः कृपयाऽन्विता" ॥११॥ "ततो दीनान् पशून् दष्ट्वा ऋषयस्ते तपोधनाः । ऊचुः शक्रं समागम्य नायं यज्ञविधिः शुभः" ॥१२॥ "अपरिज्ञानमेतत्ते महान्तं धर्ममिच्छतः। न हि यज्ञे पशुगणा विधिदृष्टाः पुरन्दर !" ॥१३॥ "धर्मोपघातकस्त्वेष समारम्भस्तव प्रभो !।
नायं धर्मकृतो यज्ञो न हिंसा धर्म उच्यते" ॥१४॥ "विधिदृष्टेन यज्ञेन धर्मस्तेषु महान् भवेत् । यज्ञबीजैः सहस्राक्ष ! त्रिवर्षपरमोषितैः" ॥१६॥
भावार्थ-हे युधिष्ठिर! यज्ञमण्डप में अध्वर्यु लोगों से वध समयमें पशुओंके ग्रहण करने पर ऋषि लोग कृपावन्त हुए । उसी समय दीन पशुओं को देख करके तपोधन-ऋषिलोग इन्द्र के पास जाकर बोले कि हे बड़े धर्मकी इच्छा करनेवाले इन्द्र! यह यज्ञविधि शुभ नहीं है, किन्तु तेरा अज्ञानमात्र है; क्योंकि यज्ञ में पशूसमूह विधिदृष्ट नहीं है, बल्कि यह तेरा समारम्भ धर्म का घात करनेवाला है । इस यज्ञ से धर्म नहीं होगा, क्योंकि हिंसा, धर्म नहीं गिना जाता है । इसीसे केवल विधि से दिखलाये हुए यदि तीन वर्ष के पुराने बीज से यज्ञ करोगे तो विशेष धर्म होगा ।