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________________ (१२) गए हैं, उनमें एकेन्द्रिय जीव से द्वीन्द्रिय अधिक पुण्यवान होता है और द्वीन्द्रिय से त्रीन्द्रिय. तथा त्रीन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय इस तरह सर्वोत्तम जीव पञ्चेन्द्रिय समझना चाहिए । और पश्चेन्द्रिय में भी न्यूनाधिक पुण्यवाले हैं; अर्थात् तिर्यकपश्चेन्द्रिय ( बकरा, गौ, भसे आदि ) में हाथी अधिक पुण्यवान् है, और मनुष्यवर्ग में भी राजा, मण्डलाधीश, चक्रवर्ती और योगी अधिक पुण्यवान होने से अवध्य गिने जाते हैं, क्योंकि संग्राम में यदि राजा पकड़ा जाता है तो मारा नहीं जाता। इससे यह सिद्ध हुआ कि एकेन्द्रिय की अपेक्षा द्वीन्द्रिय के मारने में अधिक पाप होता है, एवं अधिक २ पुण्यवान् के मारने से अधिक - पाप लगता है । इसलिए जहांतक एकेन्द्रिय जीव से निर्वाह हो सके, वहांतक पोभिद्रा जीव का मारना सर्वथा अयोग्य है । यद्यपि एहन्द्रिय जीव का मारना भी पापबन्ध का कारणही है किन्तु कोई उपायान्तर न रहने से गृहस्थों को वह कार्य अगत्या करनाही पड़ता है। अत एव कितनेही भव्य जीव इस पाप के भय से धन, धान्य, राज, पाट वगैरह छोड़कर साधु होजाते हैं, और अपने जीवनपर्यन्त अग्नि आदि को भी नहीं छूते, तथा भिक्षामात्र से उदरपोषण करलेते हैं। गृहस्थ भी जो अगत्या एकेन्द्रिय का नाश करते हैं उस पाप के परिहार के लिए साधुओं की सेवा, दान, धर्म और दोनों सन्ध्या आदि पुण्यकृत्य जन्मभर किया करते है। भिक्षामात्रजीवी साधुओं के ऊपर आरम्भ का दोष नहीं है, क्योंकि गृहस्थ लोग जो अपने लिये आहार
SR No.002390
Book TitleAhimsa Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1923
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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