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(१३) बनाते हैं उसमें वे लोग अत्यन्त आवश्यक तथा निर्दोष पदार्थ मात्र को ग्रहण करते हैं तिसपर भी गृहस्थों को यह नहीं मालूम रहता कि आज मेरे घर साधुलोग भिक्षा लेने आवेंगे । अनायास ही भोजन के समय गृहस्थ के घर पर साधु जाकर समयोचित आहार ग्रहण करता है जिससे कुछ भी दोष पूर्वकाल या उत्तरकाल में उसे नहीं लगता। ___यदि यहां पर कोई यह प्रश्न करे कि-तब साधुओं को सन्ध्यादि क्रिया करने से क्या प्रयोजन है ? इसका उत्तर यह है कि आहार नीहारादि के लिए उपयोगपूर्वक भी गमनागमन क्रिया करने में जो अनुपयोगरूप से दोष लगता है उसके प्रायश्चित्त निमित्त ही वह क्रिया की जाती है। ____ महाशय ! लोकव्यवहार से अनुभव द्वारा विचार करने पर एक सामान्य न्याय दिखाई पड़ता है कि " जैसा आहार वैसा विचार " याने उत्तम आहार खाने से उत्तमही विचार उत्पन्न होगा और मध्यम आहार से मध्यम, किन्तु तुच्छ आहार करनेसे तुच्छही विचार होगा; इसलिए समस्त दर्शनवालों के महात्मालोग जब योगारूढ़ होते हैं तब उनका आहार कैसा अल्प होता है वह भी देखने ही के लायक है । तात्पर्य यह है किसर्वोत्तम आहार में मूंग की दाल और चावल तथा उसके साथ में वनस्पति की किसी प्रकार की तरकारी गिनी गई है; क्योंकि भात हलका और पौष्टिक भोजन है, इसीलिए प्रायः समस्त देशोंमें वह भोजन श्रेष्ठ गिना जाता है और प्रायः चावल खानेवाले बुद्धिमान ही