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जगह उन जीवों का खून गिरता है वहीं पर उन जीवों की ज्यादा उत्पत्ति होती है। और मारनेवाला भी सर्पावस्था को प्राप्त होकर उस सर्प से अवश्य मारा जायगा। क्योंकि जो जीव एक दफे जो कर्म करता है उसको वह कम से कम दस गुना भोगता है । यावत्परिणाम के वश से सौ गुना, हजारगुना, लाखगुना, और करोड़गुना भी कर्म का बन्ध पड़जाता है । सर्पादि के मारने से न तो लोकोपकार होता है और न स्वोपकार ही होता है, किन्तु पूर्वोक्त बातों से दोनों का अपकार ही सिद्ध होता है । क्योंकि पहिले जो थोड़े सर्प थे, उनको अब वह मारकर बढ़ावेगा, और मारनेवाले को मरनेवाले जन्तु का भव अवश्य धारण करना पडेगा। अत एव काल शब्द से आत्मा के वास्तविक शत्रु क्रोधादि को ही लेना चाहिये, और उनके ही मारने की पूर्ण चेष्टा करनी चाहिये । जो हिन्दू और मुसलमानों में आजतक महात्मा हुए हैं, वे सब दयाभाव से ही हुए है । और जैनों के लिए यह कथन तो सिद्धसाधनरूप है । क्योंकि पूर्वोक्त श्लोकों में दिखलाया गया है कि महात्मा पुरुष के प्रभाव से ही कर जन्तु भी शान्त होगये हैं और हो जाते हैं, तब स्वभावसरल जीवों की कथा ही क्या है ? । योगवासिष्ठ में जो मोक्ष के चार द्वारपाल बताये गये हैं उनमें एक शम भी गिनाया गया है; क्योंकि शमशाली पुरुष, समस्त जीवों को विश्वासपात्र ही दिखाई देता है। यथा" मोक्षद्वारे द्वारपालाश्चत्वारः परिकीर्तिताः। शमो विचारः सन्तोषश्चतुर्थः साधुसङ्गमः " ॥४७॥
यो० वा० पृष्ठ ४